हिन्दु, जैन और बौद्ध साहित्य के ’सन्तिका’ शब्द से साड़ी का विकास हुआ। साड़ी भारतीय महिलाओं का एक परिधान है जिसकी लंबाई 5.5 मीटर से 9 मीटर होती है। जिसे चोली और साये के साथ पहना जाता है। इसको पहनने की विभिन्न शैलियाँ हैं। साड़ी को भारतीय महिलाओं के सांस्कृतिक पहनावे के रूप में भी जाना जाता है। भारत में अनेक तरह की साड़ियाँ बनती है। हम आपको ऐसी ही आठ साड़ियों के विषय में बताने जा रहे हैं। जिनसे हर भारतीय महिला अपनी अलमारी को सुसज्जित रखना चाहती है।
1. बनारसीसाड़ीरेशमी
और जरी की बुनाई के काम की साड़ी को बनारसी साड़ी कहते हैं। यह बनारस और उसके आस-पास के शहरों में बनती है। प्राचीन काल में इन साड़ियों में सोने और चाँदी के तार का काम होता था। पर अब इसके अत्यधिक महँगे होने के कारण कृत्रिम तारों का प्रयोग होता है। विवाह और शुभ अवसरों पर बनारसी साड़ी पहनना आज भी गर्व का प्रतीक है। यह बनारस की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार है।
2. कांजीवरम(तमिलनाडु)
तमिलनाडु के कांचीपुरम में बनने वाली रेशमी साड़ी को कांजीवरम साड़ी के नाम से जाना जाता है। इन साड़ियों को बनाने में शहतूत के रेशम का प्रयोग किया जाता है जो दक्षिण भारत से आता है तथा जरी गुजरात से आती है। इन साड़ियों का बार्डर और आँचल एक रंग का होता है और बाकी साड़ी दूसरे रंग की। इसके तीनों हिस्सों को अलग-अलग बुनकर इस प्रकार जोड़ा जाता है कि कोई जोड़ दिखता नहीं है। तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की महिलाएँ इसे विवाह और शुभ अवसरों पर पहनती हैं।
3. तांतकीसाड़ी(पश्चिमबंगाल)
बंगाली महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली पारंपरिक साड़ी तांत की साड़ी के नाम से जानी जाती है। यह बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के बुनकरों के द्वारा बुनी जाती है। इसे बनाने के लिए सूती धागों का प्रयोग किया जाता है। इसमें जरी अथवा सूती किनारा होता है। यह महीन और पारदर्शी होती है। बंगाल में गर्म जलवायु होने के कारण यह वहाँ की महिलाओं के लिए एक आरामदायक परिधान है।
4. सांभलपुरीसाड़ी
यह एक पांरपरिक परिधान है हथकरघे पर बुना जाता है। यह संबलपुर और उसके आस-पास के क्षेत्र में बनती है। इसमें ताना और बाना के धागे बुनाई से पहले रंग लिए जाते हैं। इसमें आमतौर पर शंख, चक्र, फूल आदि बनते हैं। यह अधिकतर सफेद, लाल, काले, नीले रंगों की होती है। यह बाँधाकला (टाई-डाई) की पारंपरिक शिल्पकला के लिए प्रसिद्ध है।
5. पैंठणी(महाराष्ट्र)
महाराष्ट्र के पैंठण शहर में बनने के कारण इस साड़ी को पैंठणी के नाम से जाना जाता है। यह भारत की महंगी साड़ियों में से एक है। यह उच्चकोटि के महीन रेशम से बनती है। इसकी विशेषता इसके मोर की अनुकृति वाले पल्लू होते हैं। यह एक रंगी तथा बहुरंगी होती है। इसमें सुनहरे तारों का भी प्रयोग किया जाता है।
6. बाँधनीसाड़ी
इसे बंधेज साड़ी के नाम से भी जाना जाता है। यह गुजरात और राजस्थान में बनती है। बंधनी का अर्थ है ‘बाँधना’। साड़ी को छोटे-छोटे बंधनों में बाँध कर रंग-बिरंगे रंगों से रंगा जाता है। यह साड़ियाँ लोकप्रिय है। यह किसी भी अवसर पर पहनी जा सकती हैं।
7. चिकनकारी
मुगलों द्वारा आरंभ की गई लखनऊ की प्राचीन पारंपरिक कढाई की कला को ’चिकेन’ कहा जाता है। प्रारंभ में यह कढाई मलमल के सफेद कपड़े पर होती थी। इस कढाई की प्रमुख विशेषता इसके टाँके हैं। जिसे नफासत और कलात्मक तरीके से बनाया जाता है। अब रेशम, शिफाॅन, नेट आदि कपड़ों पर भी चिकेन का काम होने के साथ ही रंगीन कपड़ों पर यह कढाई होने लगी है। आरामदायक होने के कारण यह साड़ी हर महिला की पसंद है।
8. बालूचरीसाड़ी
प्रसिद्ध बालूचरी साड़ी मुर्शिदाबाद (पश्चिम बंगाल) में बनती हैं। इस साड़ी को बनाने में दो लोग लगते हैं और इसे बनने में 7 से 10 दिन लगते हैं। इन साड़ियों पर रेशम के महीन धागों के द्वारा पौराणिक कथाओं के दृश्य बनाए जाते हैं। अत्यघिक कीमती होने के कारण किसी समय यह साड़ियाँ बंगाल की रईस महिलाएँ पहनती थीं अब भी शादी-विवाह के अवसरों पर इन साड़ियों का प्रयोग होता है।